श्री गणेशाय नमः ।
श्री कालभैरवाय नमः ।
श्री शिवांशपूर्ण आदि मध्य अंत ज्या नसे,
बाह्य जया नसे उपाधि चार गर्जती असे ।
निर्गुणा निरंकुशा निरंजना निरंतरा,
श्री हरेश्र्वराधिनाथ कालभैरवा स्मरा ॥ १ ॥
विश्र्वसुत्रचालका असंख्य लोक पालका,
ज्ञान दीपका अनादि धर्म मार्ग रक्षका ।
व्यापूनी स्थिराचरा अलिप्त जो सदा खरा,
श्री हरेश्र्वराधिनाथ कालभैरवा स्मरा ॥ २ ॥
भूतनायका कृतांत कर्म दर्प नायका,
शूल दंड जो धरी करी पिनाककार्मुका ।
भीमविक्रमा प्रचंड शक्ती धारका परा,
श्री हरेश्र्वराधिनाथ कालभैरवा स्मरा ॥ ३ ॥
यच्छिरी जटा गळ्यांत भक्तरुंडमालिका,
रत्नपादुकापदीं विचित्र वेषधारका ।
यत्प्रकाश दिपवी अनंतकोटी भास्करा,
श्री हरेश्र्वराधिनाथ कालभैरवा स्मरा ॥ ४ ॥
इंदुमित्र वन्हिनेत्र तीन ज्या त्रिलोचना,
शामकाय निळकंठ मोहजाळ मोचना ।
घोरपापसंहार अशा शशांक शेखरा,
श्री हरेश्र्वराधिनाथ कालभैरवा स्मरा ॥ ५ ॥
भ्राति भीती नाशना भुजंग भस्मभूषणा,
आदिकारणा भवाब्धितारणा सनातना ।
अक्षया निरामया दयाकरा दिगंबरा,
श्री हरेश्र्वराधिनाथ कालभैरवा स्मरा ॥ ६ ॥
भक्तकार्य कल्पवृक्ष दक्ष भक्तरक्षणी,
नित्य साक्ष सोज्वलाक्ष शुद्ध शांत जो क्षणीं ।
भक्तवत्सला स्वभक्तभाव दृष्टिगोचरा,
श्री हरेश्र्वराधिनाथ कालभैरवा स्मरा ॥ ७ ॥
शाश्र्वता अनादि दैवता त्रिताप हारका,
श्रांत वर्णिता फणीन्द्र चारही तशी सहा ।
नारदादि योगिवंद्द वंद्दही सुरासुरा,
श्री हरेश्र्वराधिनाथ कालभैरवा स्मरा ॥ ८ ॥
वाचितां त्रिकाल नेम कालभैरवाष्टका,
प्राप्त होय भुक्ति मुक्ति सत्य नीत पाठका ।
इच्छितार्थ दे समर्थ साह्यहो पदोपदी,
दास मी मलीन लीन भैरवाचि या पदी ॥ ९ ॥ ॥
इति कालभैरवाष्टक संपूर्ण ॥
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